दूर से देखकर लोग कहते मठरी-अचार बेचने वाली आ गई:आत्मनिर्भर मिशन में महिलाओं को जीरो से उठाकर लाखों के बिजनेस तक पहुंचाया तो होने लगी वाहवाही Featured

बोलता गांव डेस्क।।

मैं अपने करियर में सफलता की नई ऊंचाइयां हासिल कर रही थी। घर से बाहर जाती तो लोग मुझे मेरे नाम और चेहरे से पहचानते। फिर मैंने शादी कर घर बसाया और 2010 में मुझे मां बनने का सौभाग्य मिला। शादी से पहले मेरी दुनिया काफी अलग थी, मगर मां बनी तो मेरा संसार ही बदल गया। बच्चे के लिए मैंने काम और करियर से ब्रेक जरूर लिया, मगर जब वापसी करने की बात आई तो मैंने खुद के बजाय समाज के लिए काम करने की ठान ली। इस तरह मेरे मिशन की शुरुआत हुई। आज इसी के दम पर 500 से अधिक महिलाओं को अपने साथ जोड़ चुकी हूं और उन्हें आत्मनिर्भर बना रही हूं। पढ़िए नम्रता नारायण की कहानी, उन्हीं की जुबानी...

 

 

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12 साल की थी जब पिता को खो दिया, मां हमेशा से रही मेरी प्रेरणा

अकेली महिला को देख अक्सर लोग उसे बेचारी और बेसहारा का टैग दे देते हैं। मगर मेरा बचपन जिस महिला को देखकर बीता है वो मजबूती से हर मुश्किल का सामना करती थी। मेरी मां ने मुझे और भाई को अकेले अपने दम पर पाला। मैं मुश्किल से 12 साल की थी जब पिता दुनिया छोड़कर चले गए। मेरी मां एक मीडिया कंपनी में बतौर अकाउंटेंट काम करती थीं। दोनों बच्चों को बड़ा करने से लेकर पढ़ाने-लिखाने की जिम्मेदारी उन्होंने अकेले उठाई। हमें भी बचपन से ही जिम्मेदार बनाया, इसलिए कोई भी मुसीबत आने पर मैं कभी घबराती नहीं। ये सीख मुझे मेरी मां से मिली है।

 

मैंने बीकॉम से ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल की। इसके बाद आर्मी का फॉर्म भरा, परीक्षा तो पास कर ली, मगर मेडिकल नहीं निकाल सकी। जब नौकरी ढूंढने निकली तो मेरी पहली जॉब प्राइवेट बैंक में लगी। यह सब चल ही रहा था कि एक दिन मेरी मां ने कहा कि तुम वापस बिहार आ जाओ और पोस्ट ग्रेजुएशन करो। मां जानती थी कि मुझे सामाजिक मुद्दों पर बात करना, उन पर काम करना पसंद हैं, इसलिए उन्होंने मुझे मीडिया की पढ़ाई करने और उसी में आगे करियर बनाने के लिए मोटिवेट किया।

 

पढ़ाई पूरी कर मैं साल 2005 में दिल्ली आ गई और यहां टीवी न्यूज चैनल में पहले बतौर रिपोर्टर और फिर एंकर की पोस्ट पर काम किया। कई प्राइम टाइम शो में काम करने का मौका मिला। क्राइम की खबरें करती थी, तो लोग मुझे मेरे शो और नाम से पहचानते थे। घर से बाहर जाती तो लोग मुझे पहचानते, सामने से बात करने आते। उस वक्त मुझे भी सेलिब्रिटी जैसी फील आती थी। 2009 में मेरी दिल्ली में एक डॉक्टर से शादी हुई। 2010 में मुझे मां बनने का सौभाग्य मिला। बस यहीं से मेरे जीवन ने नया मोड़ लिया।

 

महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए शुरू किया मिशन

अगस्त 2010 में बच्चा होने के बाद उसकी देख-रेख के लिए मैंने 2011 तक करियर से ब्रेक लिया और नौकरी छोड़ दी। मैं अपने बच्चे के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताना चाहती थी ताकि उसे अच्छी परवरिश दे सकूं। बच्चे के बड़े होने पर मैंने कुछ मैगजीन में काम करना शुरू किया। नौकरी छोड़ने के बाद मुझे जो समय मिला उसमें मैंने कई एनजीओ की वर्किंग को गौर से देखा। ये समझने की कोशिश की कि आखिर महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए देश में क्या किया जा रहा है। मैं अक्सर देखती कि महिलाओं को सिलाई मशीन बांटी जा रही है या उन्हें कंप्यूटर चलाना सिखाया जा रहा। मगर ये नहीं समझ पाती थी कि अगर उन्हें अंग्रेजी नहीं आती तो वह आगे नौकरी कैसे कर पाएंगी या रोजगार कैसे मिलेगा।

 

उस वक्त मैंने मन में ठान लिया कि मुझे खुद नौकरी करने के बजाय महिलाओं को सशक्त बनाने की दिशा में काम करना चाहिए। मैं अपने मिशन पर निकल पड़ी। इस मिशन में मेरे पति ने भी मुझे काफी मोटिवेट किया और साल 2012 में मैंने 'रमा फाउंडेशन' नाम से एक सामाजिक संस्था का पंजीकरण कराया। शुरुआती तौर पर हाउस हेल्प के बच्चों के लिए क्रेच शुरू किए, साथ ही कुछ पढ़ी-लिखी महिलाओं को जोड़कर बाकी महिलाओं के स्किल डेवलपमेंट पर काम शुरू किया। 2018 में ‘मैत्री एक परिचय’ के नाम से महिला सशक्तिकरण के मिशन पर काम किया।

 

इस प्रोग्राम में उन महिलाओं की मदद की जाती है जो अपना घर संभालने के साथ बिजनेस करना चाहती हैं। भारत में ज्यादातर महिलाएं कुकिंग में अच्छी होती हैं और यह उनके लिए ऐसा ऑप्शन है जिससे वह घर रहकर भी आसानी से काम कर सकती हैं। ऐसी ही महिलाएं घर रहकर हमें अचार, पापड़, मठरी, बड़ी, घर के बने मसाले और मिठाइयां आदि बनाकर हमें भेजती हैं। उस सामान की पैकेजिंग कर मार्केटिंग का काम मैत्री संस्था करती है। इस तरह महिलाओं को सामान बेचने के लिए अलग से नहीं भागना पड़ता, वह पूरी तसल्ली से प्रोडक्ट पर काम करती हैं।

 

मैत्री से दिल्ली-एनसीआर के ग्रामीण इलाकों में रहने वाली महिलाएं भी जुड़ी हैं। वे हाथों से ज्वेलरी बनाने का काम करती हैं, साथ ही हर्बल कॉस्मेटिक तैयार करती हैं, मगर जानकारी नहीं होने के कारण वह उसे मार्केट में नहीं ला पाती थीं। ये महिलाएं पहले सिर्फ पड़ोस और रिश्तेदारों को सामान बेचती या ज्यादा से ज्यादा गांव के मेले आदि में अपनी कला को दिखा पातीं। मगर आज दिल्ली में होने वाली आर्ट एग्जिबिशन में इन महिलाओं की कला पहुंच रही है। उन्हें नाम और काम दोनों मिल रहा है।

 

मैं महिलाओं को एमएसएमई (सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम मंत्रालय) की स्कीम से जुड़ने का तरीका सिखाती हूं, इन्हें फूड लाइसेंस, जीएसटीएन नंबर लेने से लेकर बिजनेस आदि के लिए जितने भी जरूरी डॉक्यूमेंट्स चाहिए होते हैं उसके लिए रजिस्ट्रेशन का तरीका बताती हूं, कहीं अटक जाएं तो गाइड करती हूं।

 

लोग बोलते - ‘डॉक्टर की पत्नी होकर दुकानों में सामान बेचती हो अच्छा नहीं लगता’

सामाजिक संस्था चलाना इतना आसान भी नहीं होता जितना कि लोग इसे समझते हैं। घर से बाहर निकलने पर तरह-तरह के ताने सुनने पड़ते हैं। मुझे आज भी याद है कि महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने से पहले मैंने खुद मार्केट में कई बार धक्के खाए हैं। मैं खुद प्रोडक्ट लेकर मार्केट में दुकानदारों के पास जाती, पहली नजर में एक महिला को बैग टांगे देख हर कोई ‘सेल्स गर्ल’ मान लेता और पहली ही बार में सामान रखने से मना कर देता। फिर मैं उन्हें इस मुहिम के बारे में समझाती। इस तरह एक-एक कर मैं कई मार्केट में चक्कर काटती।

 

शुरुआत में मुझे खुद भी बहुत खराब लगा, एक अच्छी नौकरी छोड़कर लोगों की दुकानों पर घूमना, उनसे मिन्नतें करना कि वह महिलाओं का सामान अपनी दुकान पर रख लें। कई बार झड़प होती तो कई लोग बेइज्जती भी कर देते। मगर इस मुहिम के लिए मैंने हर पड़ाव को पूरा किया।

 

ये तो घर से बाहर की कहानी थी, मगर हम जिस समाज में रहते हैं वहां लोग बदलाव को जल्दी अच्छी नजरों से नहीं देखते। मेरे पड़ोसी और परिवार के लोग भले ही मेरे चेहरे पर कुछ नहीं कहते। मेरे सामने एनजीओ की सराहना करते, मगर पीठ घूमते ही पति से शिकायत करने पहुंच जाते। कई बार मैंने खुद लोगों को कहते सुना कि 'अरे डॉक्टर की पत्नी होकर दुकान-दुकान जाकर सामान बेचती हैं, देखने में अच्छा नहीं लगता'। कुछ लोग मुझे देख मुंह सिकोड़ते और कहते, 'देखो, मठरी-अचार बेचने वाली आ गई।' मगर उन्हें ये नहीं समझ आता था कि ये मठरी-अचार कई महिलाओं के लिए रोजगार का एकमात्र माध्यम है। कोरोना में कई महिलाओं के पति की नौकरी छूट गई तब उन्होंने इसी मठरी-पापड़, अचार को बेचकर अपने घर का खर्च चलाया और आज भी चला रही हैं।

 

मेरे पति कभी भी मुझे छोटा महसूस नहीं करने देते। यहां तक कि मेरा 12 साल का बेटा भी मेरा सपोर्ट करता है। कई बार काम के सिलसिले में मैं उसे अकेला भी छोड़कर जाती हूं। परिवार के लिए जो समय देना चाहिए उसमें से समय काटकर मैं महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने की मुहिम पर लग जाती हूं। मगर बच्चा कभी शिकायत नहीं करता। इन्हीं सब चीजों से मुझे ताकत मिलती है।

 

जिले के 'सेल्फ हेल्प ग्रुप' में महिलाओं को सिखा रही बिजनेस का तरीका

उत्तर प्रदेश के 'मिशन शक्ति प्रोग्राम' के तहत गौतमबुद्ध नगर जिला प्रशासन के साथ मिलकर काम करने का मौका मिला। यहां मैं 'सेल्फ हेल्प ग्रुप (SHG)' के साथ मिलकर काम कर रही हूं। प्रधानमंत्री के 'वोकल फॉर लोकल' मुहिम को जमीनी स्तर पर लाते हुए SHG की महिलाओं द्वारा बनाए जा रहे तरह-तरह के प्रोडक्ट्स को मार्केट में उतार रही हूं। इन्हें लोकल मार्केट के अलावा ऑनलाइन ई-कॉमर्स साइट के जरिए भी बेचा जा रहा है। इस तरह गांव व दूर इलाकों में रह रही महिलाओं को भी अपने हुनर के दम पर अपने पैरो पर खड़े होने का मौका मिल रहा है।

 

अब तक दिल्ली एनसीआर से करीब 500 महिलाएं मेरी इस मुहिम का हिस्सा बनकर आगे बढ़ रही हैं। वुमन मिशन पर मेरे काम को सरकार के साथ ही कई संस्थाओं ने भी सहारा है और समय-समय पर सम्मानित भी करते हैं।

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