ख़बर जरा हटके: लाखों की नौकरी छोड़ दिव्यांगों को इज्जत की जिंदगी दी: जरूरतमंद बच्चों को अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाया, 'रानी लक्ष्मीबाई वीरता पुरस्कार' से सम्मानित Featured

बोलता गांव डेस्क।।

जज्बा और जुनून हो तो चुनौती की हर चट्टान को काटा जा सकता है। पहाड़ काटकर रास्ता बनाने वाले दशरथ मांझी की तरह ही कानपुर में दर्शन पुरवा की रहने वाली मनप्रीत कौर ने जब मल्टीनेशनल कंपनी में लाखों की नौकरी छोड़ दिव्यांग बच्चों को इज्जत की जिंदगी देने और अपने पैरों पर खड़े होने का हुनर सिखाने का फैसला किया, तो दोस्तों और रिश्तेदारों ने उन्हें पागल कहना शुरू कर दिया। इसके बावजूद वह अपने फैसले पर अड़ी रहीं। आइए, जानते हैं मनप्रीत की कहानी उन्हीं की जुबानी।

 

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दुख बांटने से बड़ा कोई सुख नहीं

 

मेरा जन्म कानपुर में हुआ। मां गर्ल्स इंटर कॉलेज में टीचर थी और पापा जी बिजनेसमैन थे। मुझ में सेवा और करुणा भाव शुरू से था। बचपन में अपना टिफिन किसी जरूरतमंद बच्चे को खिला देना और टीचर से यह शिकायत आना कि इसने अपना खाना नहीं खाया, दूसरे को दे दिया, और इस बात पर मां का डांटने के बजाय सीने से लगा लेना इस बात की तसल्ली देता कि मैं नेक काम कर रही हूं।

 

दिव्यांगों के लिए स्पेशल एजुकेशन में एम एड किया

 

शादी से पहले इंग्लिश लिटरेचर में मास्टर कंप्लीट किया। उसके बाद दिव्यांग बच्चों के संपर्क में आने के बाद ऐसा लगा कि अभी बहुत कुछ करना बाकी है। जिन बच्चों पर काम करना है अगर उनके बारे में कोई जानकारी ही नहीं तो यह अन्याय होगा। उसके बाद मैंने स्पेशल एजुकेशन में बीएड, पीजीपीडी और हाल ही में स्पेशल एजुकेशन में एमएड भी किया और अभी पीएचडी की तैयारी चल रही है।

 

नए सफर की कहानी अद्भुत, अकल्पनीय और अविश्वसनीय है

 

2002 में शादी हुई। पति ने हर कदम पर मेरा साथ दिया। मैंने पति की ही कंपनी में इंटरव्यू दिया और मेरा भी सिलेक्शन वहीं हो गया। हम दोनों एक साथ एक ही कंपनी में काम करने लगे। नोएडा की मल्टीनेशनल कंपनी में हम दोनों ने 7 साल तक काम किया। पैकेज तो अच्छा था ही, साथ ही इंसेंटिव सैलरी से ज्यादा थे। अच्छा काम करने की वजह से लगातार प्रमोशन होते गए और सैलरी बढ़ती गई। कंपनी की तरफ से यूएस जाने का मौका मिल रहा था, वहीं दूसरी तरफ भाग्य अपना खेल रच रहा था। यहीं से शुरू हुई मेरे नए सफर की कहानी जो अद्भुत, अकल्पनीय और अविश्वसनीय है।

 

बच्चों के साथ मन लग गया

 

ऑफिस के बाहर बहुत सारे लोग खाने-पीने के स्टॉल लगाते थे। कुछ पुलिस वाले ठेले वालों को परेशान करते थे। उन्हें रेड़ी हटाने के लिए कहते थे। वहीं एक फुटपाथ वाला कुछ गरीब और दिव्यांग बच्चों को अपने ठेले के पीछे ही ग्रीन बेल्ट में बैठकर सिर्फ इसलिए पढ़ाने लगा जिससे पुलिस वाला उसका ठेला न हटा पाए। वहां बहुत से लोग जाते थे, कोई बच्चों को चाय पिलाता, कोई कुछ खाने को देता। एक बार मुझे भी मौका मिला। जब मैं उन बच्चों के पास गई तो वहीं एक वाइट बोर्ड पर मैंने उन्हें कुछ पढ़ाने की कोशिश की। मन को बहुत अच्छा लगा। दो-तीन दिन बाद फिर मन हुआ और मैं दोबारा वहां पहुंच गई। उनमें से कुछ बच्चे न बोल सकते थे, न सुन सकते थे, लेकिन उन्हें वह सब याद था जो मैंने तीन दिन पहले उन्हें बताया था। वहां रोज कई लोग आते, कोई उन्हें खाने को देता, कोई पैसे देता। मैंने उन्हें कुछ नहीं दिया, सिर्फ थोड़ा सा पढ़ाया और उन्हें वह सब कुछ याद था। मुझे लगा कि जो बच्चे बोल नहीं सकते, सुन नहीं सकते, लेकिन शारीरिक और मानसिक तौर पर बिल्कुल स्वस्थ हैं, उन्हें यदि सही दिशा-निर्देश दिया जाए तो वे बहुत कुछ कर सकते हैं।

 

दिव्यांग बच्चों पर गांव से लेकर गली-गली रिसर्च की

 

मैंने इन बच्चों के बारे में नेट पर पढ़ना शुरू किया। बहुत कुछ था इन पर करने के लिए, लेकिन नौकरी के साथ इन बच्चों पर काम करना नामुमकिन था। इन बच्चों की प्रीत ऐसी लगी कि मैं अपना सब कुछ छोड़कर वापस अपने घर कानपुर आ गई। मैंने इस शहर के आसपास के गांवों से लेकर गली-गली इन बच्चों पर रिसर्च करना शुरू किया। अपने घर के ही दो कमरों से 'दिव्यांग डेवलपमेंट सोसाइटी, नाम की संस्था बनाकर इन बच्चों पर काम करना शुरू किया।

 

“चलना शुरू कर दो, रास्ते अपने आप बन जाएंगे, नामुमकिन कुछ भी नही, बस कांटे अपना फर्ज निभाएंगे।”

 

कोई तो है जो करता है मुश्किल हमारी दूर….

 

कहते हैं न कि कोई भी अच्छा कार्य करना शुरू करो तो मुश्किलें तो आएंगी ही, पर उन मुश्किलों का सामना हमें सब्र से करना है। मुश्किलें तो बहुत आईं, पर घर-परिवार, पति सबका साथ था, जिसकी वजह से मुश्किलें आसान होती गईं। ऐसा वक्त भी आया जब लोगों ने मुझे पागल कहना शुरू कर दिया और मैंने इस बात को कॉम्प्लिमेंट की तरह लेना शुरू कर दिया। काम शुरू करने के लिए जगह के लिए बहुत जगह भटकी। जब कहीं से कुछ नहीं मिला तो अपने ही घर के एक कमरे से दो मूक-बधिर बच्चों से शुरूआत की और आज 100 से ज्यादा बच्चों को पढ़ा लिखा कर उन्हें अपने पैरो पर खड़ा कर चुकी हूं।

 

इन बच्चों में है मैजिकल पावर

 

पहले मैं सोचती थी कि इन बच्चों को अच्छी शिक्षा और अच्छी नौकरी मिले, लेकिन जब इनसे मिली तो ऐसा लगा कि ऐसा बहुत कुछ है जो ये कर सकते हैं। जैसे सिलाई, पेंटिंग, डांस, खेलकूद, हाथ से बना सामान, ऐसा कोई काम नहीं जो ये बच्चे आम इंसान जैसा न कर पाएं।

 

रानी लक्ष्मीबाई वीरता पुरस्कार' से सम्मानित

 

मुश्किल के दौर से गुजर रही थी। हिम्मत तब मिली जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मुझे 'रानी लक्ष्मीबाई वीरता पुरस्कार' से नवाजा। जो बच्चा बोल नहीं सकता, सुन नहीं सकता, उसके ड्राइविंग लाइसेंस हमारी संस्था 'दिव्यांग डेवलपमेंट सोसाइटी' ने बनवाए। ऐसा उत्तर प्रदेश में पहली बार हुआ। फिर मुझे कानपुर और लखनऊ में कई सरकारी संस्थाओं में मेंबर बनाया गया। पूर्व राज्यपाल राम नाईक ने मेरा इस्तकबाल किया। इससे मेरे हौसले को ताकत मिली, लेकिन इस नेक काम में मेरा हाथ बंटाने वाले आज भी न के बराबर हैं।

 

जो कभी ट्रेन में नहीं बैठे, वे सिंगापुर घूम आए

 

अब तक मैं दर्जन युवाओं को ट्रेनिंग के बाद फैक्ट्रियों में रोजगार दिला चुकी हूं। काम में ईमानदारी हो तो रास्ते भी निकल आते हैं। फेसबुक में सिंगापुर के एक संगठन ने मेरी 'दिव्यांग डेवलपमेंट सोसाइटी' के बारे में पढ़ा और बच्चों को फ्री ट्रेनिंग के लिए इनवाइट किया। गरीब बच्चे, जिन्होंने कभी ट्रेन में सफर न किया हो, उनके लिए सिंगापुर जाने का इंतजाम करना असंभव था। मैंने हिम्मत नहीं हारी। जब कहीं से मदद नहीं मिली तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मिली। इतना नेक काम देख मुख्यमंत्री ने बच्चों को सिंगापुर भेजने का फैसला किया। दो दिन में वीजा, पासपोर्ट बना। इस तरह 20 बच्चे सिंगापुर में डिजिटल प्रिंटिंग की ट्रेनिंग करने गए। जहां इन बच्चों ने अपने हुनर से सबको अचंभित कर दिया। ट्रेनिंग के बाद अब टेक्नोलॉजी एक्सपर्ट के रूप में ये बच्चे काम कर रहे हैं।

 

हुनर और हौसले की हकीकत हैं मेरे बच्चे

 

यह बच्चे सच में खास हैं। मानसिक और शारीरिक तौर पर पूरी तरह से सक्षम हैं। हमें सिर्फ जागरूक होना है। इनकी खासियत को पहचान कर उन्हें तराशना है। ऐसा कोई भी कार्य नहीं जो ये बच्चे नहीं कर सकते। सिलाई, पेंटिंग, खेलकूद, नृत्य-नाटक, दीये और कैंडल बनाने से लेकर अचार, पापड़, चिप्स, चॉकलेट बनाकर जगह-जगह स्टॉल में इन बच्चों ने अपना हुनर दिखाया है। चाहे प्रधानमंत्री योजना 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' हो या यातायात नियमों के लिए रैली, चाहे मतदाता जागरूकता कार्यक्रम हो या स्वच्छता पर कार्यक्रम, इन बच्चों ने हर जगह अपना हुनर दिखाया है।

 

दिव्यांग बच्चों के लिए प्रोग्राम की शुरुआत

 

10 दिव्यांग लड़कियों को ब्यूटीशियन की मुफ्त ट्रेनिंग दी जा रही है, जिससे वो आत्मनिर्भर बनें।

दिव्यांग डेवलपमेंट सोसाइटी के जरिए 'दिव्यांग स्पोर्ट्स एकेडमी' की शुरुआत होने जा रही है, जिसमें​​ दिव्यांग बच्चों के लिए क्रिकेट, बैडमिंटन, स्केट्स, वॉलीबॉल जैसे खेल शुरू किए जाएंगे।

दिव्यांग बच्चों के लिए कानपुर में निशुल्क हॉस्टल की शुरुआत होने जा रही है।

न आंखें हैं, न शब्द, ये इशारों की अदभुत भाषा है

 

ये बच्चे मेरी जिंदगी का अहम हिस्सा हैं। मैं उनकी पसंद के मुताबिक उन्हें ट्रेनिंग देती हूं। हैंडीक्राफ्ट के छोटे-छोटे प्रोडक्ट बनाती हूं। उन्हें छोटी-बड़ी प्रदर्शनियों में ले जाती हूं। खास बात ये है कि इन प्रदर्शनियों में प्रोडक्ट बेचने से लेकर उन्हें समझाने तक की जिम्मेदारी इन्हीं बच्चों की होती है। मुझे बिल्कुल पसंद नहीं कि कोई मेरे बच्चों को दिव्यांग कहे। जिनके पास जुबान नहीं, उसके पास आंखों की भाषा है। जिनके पास न आंखें हैं, न ही शब्द, उनके पास हाथ के इशारों की अदभुत भाषा है।

 

कोशिश हकीकत में बदल रही है

 

मैं एनजीओ के नाम पर हो रही लूट से बेहद दुखी हूं। इसकी वजह से हकदार लोगों को मदद नहीं मिल पाती। मैं अपने बच्चों के लिए सिवाय हौसले के कुछ नहीं चाहती। अपने जन्मदिन पर उन्हें एक पेंसिल दीजिए। घर के बेकार सामान दीजिए। अखबार दीजिए, जिससे हम कुछ नया बनाएंगे। ज्यादा कर सकते हैं, तो अपनी क्षमता के मुताबिक कीजिए। लेकिन कुछ कीजिए जरूर, क्योंकि आपके हाथ बढ़ाने से इन बच्चों की हिम्मत बढ़ती है। इन्हें सम्मान दीजिए ताकि ये भी सिर उठाकर जिंदगी जी सकें। इन्हें लाचार नहीं, आत्मनिर्भर बनाएं। संस्था के जरिए मैं सिर्फ एक ही संदेश देना चाहती हूं कि जिन लोगों को आपकी जरूरत है, सेवा भाव से उनकी खुशी का माध्यम जरूर बनें। अपनी खुशियां हमारे बच्चों के साथ बाटें।

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