बोलता गांव डेस्क।।
मेहंदी ऐसी चीज है जो हाथों में रच जाए तो उसके रंग से मेहंदी लगाने वाले की तकदीर का हिसाब लगा लिया जाता है। मगर आज आप जिस लड़की की कहानी पढ़ रहे हैं वो दूसरों के हाथों में मेहंदी रचाकर अपनी जिंदगी में रंग भरने की कोशिश कर रही है। उत्तर प्रदेश के बनारस की रहने वाली 26 साल की शूटर पूजा वर्मा अपने स्टेट की नंबर 1 राइफल शूटर रही हैं। कई नेशनल चैंपियनशिप अपने नाम कर चुकी हैं। शूटिंग जैसा महंगा खेल सीखने और खेलने का खर्च उठाने के लिए पूजा तीज-त्योहार, शादी-ब्याह पर महिलाओं के हाथों में मेहंदी से सुंदर-सुंदर डिजाइन बनाती हैं। लड़कियों को स्कूटी चलाना सिखाती हैं। इसी तरह पाई-पाई इकट्ठा कर इंटरनेशनल शूटर बनने का अपना ख्वाब पूरा करने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रही हैं। पढ़ें पूजा वर्मा की कहानी, उन्हीं की जुबानी...
5 लाख की राइफल खरीदने के लिए पूरे परिवार ने लिया कर्ज
मैं सरकारी स्कूल में पढ़ी हूं। स्कूल में ही एनसीसी के जरिए खेलों में दिलचस्पी जगी। 2013 में पहली बार राइफल शूटिंग की, उस समय मुझे स्कूल से ही राइफल और गोलियां मिलती थीं। तब मुझे ये नहीं पता था कि ये इतना महंगा खेल है। स्कूल पूरा हुआ तो सारी फ्री सुविधा खत्म हो गई। मगर मैंने मन में एक लक्ष्य बनाया कि मुझे शूटिंग करनी हैं और इंटरनेशनल लेवल पर देश का नाम रोशन करना है।
घर की माली हालत अच्छी नहीं है। मां घरों में जाकर खाना बनाती हैं, पिता ड्राइवर हैं और बड़ा भाई कपड़े की दुकान चलाता है, बड़ी बहन की शादी हो चुकी है। किसी भी आम परिवार में जहां ऐसे हालात हों वहां लड़कियों को सपने देखने की इजाजत नहीं मिलती, मगर मेरे परिवार ने मेरा हर कदम पर साथ दिया। आज मैं जो कुछ भी हूं सिर्फ उन्हीं की मेहनत और सपोर्ट की वजह से हूं। मुझे आज भी याद है कि साल 2015 में मुझे नेशनल चैंपियनशिप की तैयारी के लिए खुद की राइफल चाहिए थी। पांच लाख से कम में कोई भी अच्छी स्पोर्ट्स राइफल नहीं मिलती। मेरे पास इतने पैसे नहीं थे और न ही इतना समय की पैसे जोड़कर राइफल खरीद सकूं। तब मां, पापा और भाई सभी ने अपने काम से थोड़े-थोड़े पैसे उधार लिए। मैं खुद तीन शिफ्ट में तीन अलग-अलग नौकरी कर पैसे जुटाने में लग गई, तब जाकर मुझे पहली बार अपनी राइफल से नेशनल चैंपियनशिप में खेलने का मौका मिला। 7 साल हो गए हैं हम अभी भी राइफल का उधार चुका रहे हैं।
उधार की राइफल से करती थी प्रैक्टिस, क्लब में एंट्री पाने के लिए DM से लगाई गुहार
अपनी राइफल आने से पहले मैं नेशनल राइफल एसोसिएशन के कोच बिपलाप गोस्वामी से मिली और उन्होंने इस सफर में मेरी काफी मदद की। वे मुझे ट्रेनिंग देने की फीस नहीं लेते। उन्हें हमेशा से मुझमें टैलेंट दिखा और उसे आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने मेरी काफी मदद की।
मेरे पास पैसे नहीं थे इसलिए स्टेट चैंपियनशिप तक फेडरेशन की मदद से मुझे कई बार उधार पर राइफल मिली, जिसके दम पर मैंने जिले से स्टेट और फिर नेशनल तक का सफर तय किया। वह आज भी मेरे कोच हैं और मुझे हर पड़ाव पर मदद करते हैं।
एक शूटर को प्रैक्टिस के लिए शूटिंग रेंज की जरूरत होती है, क्योंकि बाकी खेलों की तरह इसकी प्रैक्टिस हम अपने घर के पीछे बने पार्क में नहीं कर सकते। करीब दो साल पहले की बात है, मैं बनारस के डिस्ट्रिक्ट राइफल क्लब पहुंची। उस समय क्लब की एंट्री फीस 11,500 रुपए थी। यह मेरे लिए एक बड़ी रकम थी, जिसे मैं एक बार में नहीं चुका सकती थी। मैंने डीएम से लेकर सिटी मजिस्ट्रेट तक के दफ्तर के चक्कर काटे और मिन्नतें की कि मुझे क्लब में एंट्री दे दी जाए। मैं किश्तों में मेंबरशिप की रकम चुका दूंगी। पहले वे इसके लिए राजी नहीं हुए, क्योंकि किसी को भी ऐसा करने की इजाजत नहीं थी। मगर मैं करीब एक महीने तक डीएम के ऑफिस के चक्कर लगाती रही। अंत में वे मेरी बात मान गए। इस तरह पहली बार किसी खिलाड़ी को किश्तों में शूटिंग रेंज की मेंबरशिप मिली। यह मेंबरशिप लाइफटाइम के लिए होती है, और अब मैंने क्लब की पूरी फीस जमा कर दी है।
नेशनल कैंप में जाने के लिए दो साल जोड़े पैसे, मगर कोरोना ने सारा प्लान बिगाड़ दिया
शूटिंग सबसे महंगे खेलों में से एक इसलिए है, क्योंकि यहां राइफल की एक गोली 30 से 32 रुपए की आती है और एक गेम खेलने पर कम के कम 70 से 80 गोलियां खर्च हो जाती हैं। इसके अलावा प्रैक्टिस के लिए अलग से गोलियां चाहिए होती हैं। देश में कहीं भी चैंपियनशिप होती है तो खिलाड़ी को रजिस्ट्रेशन फीस से लेकर, खेल के लिए गोलियां खरीदना, रहना-खाना और ट्रैवल का खर्च मिलाकर करीब 15 से 20 हजार रुपए का खर्च खुद उठाना पड़ता है। मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि मैं ज्यादा से ज्यादा चैंपियनशिप में हिस्सा ले सकूं इसलिए मैंने 2 साल खेल से ब्रेक लिया और एक दिन में तीन-तीन नौकरियां कर सिर्फ पैसे जोड़े ताकि अपना सपना पूरा कर सकूं।
मैं लोगों के घरों में मेहंदी लगाती, उन्हें ड्राइविंग सिखाती और आस-पास के स्कूलों में स्पोर्ट्स सिखाती। इस तरह दो साल पाई-पाई इकट्ठा कर चैंपियनशिप में खेलने के लिए पैसे जोड़े। 2017 में खेल में वापसी की और स्टेट में अच्छा परफॉर्म करने के बाद मैंने 2019 में नेशनल गेम्स में 610.1 अंक का स्कोर बनाया। 2020 में नेशनल टीम के सिलेक्शन के दो ट्रायल भी दिए। जिसे 607.1 और 608 पॉइंट्स के साथ पास किया। मगर इसके बाद कोरोना आ गया और आगे के ट्रायल नहीं हो सके। मेरा सपना पूरा होते-होते रह गया।
2021 से एक बार फिर खेलना शुरू किया। 43वीं यूपी स्टेट शूटिंग चैंपियनशिप में 50 मीटर राइफल प्रोन शूटिंग में अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खेलते हुए 609.8 पॉइंट के साथ टॉप किया। 3 गोल्ड मेडल हासिल किए। 610 पॉइंट के साथ महिला निशानेबाजों में प्रदेश में नंबर 1 पर रही। 2021 में नेशनल गेम्स खेले, जिसमें 613.9 पॉइंट हासिल किए। अब आगे नेशनल कैंप में जाने के लिए प्री-नेशनल्स की तैयारी कर रही हूं।
खुद उठाया पढ़ाई का खर्च, सीएम को पत्र लिख मांगी मदद
मैं बीपीएड तक की पढ़ाई कर चुकी हूं और एमपीएड में दाखिले की तैयारी कर रही हूं। अपनी पढ़ाई का पूरा मैं खर्च खुद ही उठाती हूं।
खेल से मुझे बेहद प्यार है, मगर खेल मंत्रालय हो या राज्य सरकार कहीं से भी आर्थिक मदद नहीं मिलती। मैंने 2019 में सीएम को लेटर लिखकर खिलाड़ी के तौर पर मदद मांगी थी। मगर आज तक कोई उत्तर नहीं मिला। खेल मंत्रालय में अधिकारियों से मिलने की कोशिश की, मगर कभी दफ्तर के अंदर एंट्री नहीं कर सकी। आखिर मैं अपनी बात कैसे पहुंचाऊं।
'बुल्सआई शूटिंग' यानी 'सांड की आंख' पर निशाना लगाना नहीं होता इतना आसान
शूटिंग प्रतियोगिता में एक विशेष श्रेणी होती है जिसे ‘बुल्सआई शूटिंग’ यानी ‘सांड की आंख’ के नाम से जाना जाता है। इस शूटिंग में बड़ी सावधानी से सटीक निशाना लगाते हुए खिलाड़ी को लक्ष्य के केंद्र में उसके सबसे करीब अधिक से अधिक निशाने लगाने होते हैं। शूटिंग के बोर्ड में टारगेट सेंटर को बुल्सआई शूटिंग या सांड की आंख कहते हैं।
ये मिले अवॉर्ड
राज्य स्तरीय 'मावलंकर शूटिंग प्रतियोगिता' का 'बेस्ट कैडेट' द्वितीय चुना गया। एक हजार रुपए इनाम राशि भी मिली।
41वीं राज्य स्तरीय निशानेबाजी प्रतियोगिता में थ्री पोजिशन राइफल में गोल्ड मेडल मिला। 5 हजार रुपए इनाम राशि मिली।
थल सैनिक कैंप में शूटिंग में गोल्ड मेडल हासिल किए।
न्युज क्रेडिट– दैनिक भास्कर