मजबूरी का नाम मजदूरीः मजदूर दिवस की अधूरी गाथा

-Amit K Chauhan
आज पूरी दुनिया मजदूरों के श्रम, साहस व योगदान को सलाम कर रही है. आज 1 मई पूरे विश्व के मजदूरों को सम्मान देने का दिन भी होता है. इसे वर्ल्ड इंटरनेशनल लेबर डे (World International Labour Day) के रुप में मनाया जाता है. आखिर इसके पीछे का इतिहास क्या है? मजदूर दिवस क्यों मनाया जाता है? चलिए इस बात को समझते हैं.
डॉ. भगवत शरण उपाध्याय की रचना “मैं मजदूर हूं” आज भी याद आता है, क्योंकि मजदूरों की अधूरी गाथा अभी भी अधूरी है। मजदूरों को न्याय, सम्मान और समाज में उनका वाजिब स्थान अभी तक हासिल नहीं हो पाया है.
मजदूर दिवस के पीछे की कहानी-
अमेरिका के मजदूरों ने अपने ऊपर हो रहे शोषण और अत्याचार के खिलाफ सन 1877 में आंदोलन शुरु किया. आज से लगभग 144 साल पहले. उस समय उन्हें आज के सरकारी समय की तुलना में कई घंटें ज्यादा काम करना पड़ता था और उन्हें मेहनताना भी बहुत कम मिल पाता था. सन 1886 से यह आंदोलन धीरे-धीरे पूरी दुनिया में फैलते गया. मजदूर यूनियन चाहता था कि समय को 8 घंटे में सीमित किया जाए. इसी मांग के साथ आंदोलन शुरु हुआ. जिसमें मजदूरों के ऊपर गोलीबारी हुई. जिसमें कुछ मजदूरों की शहादत हुई. उन्हीं मजदूरों की कुर्बानी को याद करते हुए मजदूर दिवस मनाया जाने लगा.
भारत में मजदूर दिवस का आगमन-
भारत में इसकी शुरुआत 1 मई 1923 को माना जाता है, इसका श्रेय भारतीय मजदूर किसान पार्टी के नेता कामरेड सिंगरावेलू चेटयार को जाता है. उस समय जुलूस, सभाएं मद्रास में ही आयोजित हो रहे थे. मजदूरों का कहना था कि भारत में भी इसे मान्यता मिलनी चाहिए. वे लोग मजदूरों के हक अधिकार के लिए आवाज उठाते थे तथा दुनिया भर में भारतीय मजदूरों की स्थिति पर ध्यानाकर्षित करने की कोशिश करते थे. आखिरकार समय आया और भारत में भी एक दिन के लिए राष्ट्रीय अवकाश के रुप में घोषणा की गई.
डॉ. अंबेडकर और मजदूर दिवस-
कई बार ऐसा होता है कि बाबा साहब के योगदान को किनारे रखने की कोशिश होती है लेकिन उनके कार्यों को अवांछित कर पाना मुश्किल है. उन्होंने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी की स्थापना की थी, जिसके जरिए वे निर्वाचित हुए थे. बात सन् 7 नवंबर 1938 की है, जब 1 लाख मजदूरों ने बाबा साहब के मार्गदर्शन व नेतृत्व में बड़ा आंदोलन किया था. बाबा साहब ने मजदूरों से आवाहन किया था कि लेजिस्लेटिव काउंसिल में मजदूरों का प्रतिनिधित्व नगण्य है, सत्ता की बागडोर को अपने हाथों में लो. उस समय मजदूरों का शोषण भयंकर तरीके से हो रहा था. उन्हें न्याय दिलाने के लिए लगातार आंदोलन होते रहे. तब जाकर देश में सभी के योगदान की वजह से 8 घंटे व पारिश्रमिक का कोटा निर्धारित किया गया. इससे पहले पूंजीपतियों का शिकंजा उनके गले में बंधा होता था, जिससे मजदूर निकल ही नहीं पाता था. उसे किसी तरह की खास सुविधा नहीं मिल पाती थी.
मजदूर दिवस की वास्तविक स्थिति-
वैसे तो इसका पालन सिर्फ सरकारी दफ्तरों में देखने को मिलता है जहां कामगारों को 8 घंटे काम, अच्छा फिक्स वेतन, कई तरह की सरकारी सुविधाएं मिली होती हैं. आज के दौर में देखें तो जो लोग डेली वेजेस, संविदा, कॉन्ट्रैक या ठेके पर काम कर रहे हैं, उनका भयंकर तरीके से शोषण हो रहा है. आउटशोर्सिंग नाम के ठेके की प्रथा ने देश के मानवश्रम को तबाह कर दिया है.

पढ़े-लिखे दफ्तरी मजदूरों की शोषण गाथा-
बेगारों को नौकरीशुदा कहें या मजदूर 12-12 घंटे काम लिया जाता है. समय पर सैलरी नहीं मिल पाती है. 8-10 हजार के वेतन में देश का युवा कोल्हू के बैल की तरह जुत रहा है. इनकी शोषण गाथा अनंत है. बाहर ठेके पर काम करने वाले मजदूरों साथ में महिलाओं की स्थिति अत्यंत दयनीय है, उनके पास कोई तय रोजी नहीं है. भविष्य असुरक्षित है, देश ने लोकडाउन में देख ही लिया है.
आज और भविष्य में क्या दिखता है?-
कोरोनाकाल में कई राज्यों ने मजदूरों के अधिकारों को छिन लिया, न वे आंदोलन कर सकते हैं न अपनी जायज मांग रख सकते हैं. सरकारों ने सारा शिकंजा (अधिकार) मालिकों को दे दिया है. वे चाहे जो नियम बनाए, कितने घंटे भी काम कराए, जिसे चाहे मर्जी बाहर कर दें. किसी तरह की कोई सिक्युरिटी नहीं.
आखिरकार मजदूर घूम-फिरकर वहीं 144 साल के पुराने दौर में आ गया है, जब उसका भयंकर शोषण होता था, एक पीएचडी डिग्रीधारी चपरासी बनने को मजबूर है, तो एक एम. टेक. इंजीनियर 12-14 घंटे फैक्टी में पीस रहा है, और उसे मिलते हैं महज 10-12 हजार रुपए. छत्तीसगढ़, झारखंड के मजदूर दूसरे राज्यों में बंधुआ मजदूर बनने को मजबूर हैं, उनके हक अधिकार की बातें किताबी हो गई है या किसी न्यूज पोर्टल या चैनल की टीकर बनकर सिमट जाती है.
अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस क्यों मनाया जाता है?
अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस इसीलिए मनाया जाता है, ताकि मजदूरों के योगदान को सराहा जा सके. उनके योगदान को सही पारितोषिक मिल सके. उनके विरुद्ध हो रहे अन्याय, शोषण को रोका जा सके. उन्हें समाज में न्याय, समानता व बंधुत्व मिल सके. उनके बच्चों का भविष्य उज्ज्वल हो सके पर क्या ऐसा हो रहा है या ऐसा संभव हो सके, ऐसा समाज बना पाने में हम सफल हुए हैं. क्या कोई चाहेगा कि उसका बच्चा मजदूर बने.
अब देश को ही सोचना है, एक दिन के सलाम-दुआ से क्या ये स्थिति सुधरने वाली है? क्या इससे देश मजबूत होगा या मजबूर होगा? क्योंकि आज के मजदूरों का वर्तमान दौर कल के भावी भारत का निर्माण करेगा.

(प्रस्तुत आलेख में दिए गए विश्लेषण, तथ्य व आंकड़े लेखक के निजी विचार हैं.)

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