बोलता गांव डेस्क।। यूपी में माहौल टाइट है। नेताजी हर घर जा रहे हैं। हाथ जोड़ रहे हैं। पैर पकड़ रहे हैं। वह चाहते हैं कि जनता उनके पक्ष में वोट दे, लेकिन कुछ सीटों पर जनता का अलग ही सीन है। लोग वादा तो कर देते हैं, पर वोट देने जाते ही नहीं। आज यूपी की उन 5 सीटों की बात करेंगे, जहां वोटिंग के दिन लोग बूथ तक जाते ही नहीं। एक-एक करके देखते हैं और कारण भी समझते हैं...
इलाहाबाद शहर उत्तरी सीट: इलाहाबाद यूनिवर्सिटी यहीं है
प्रयागराज जिले की एक सीट है इलाहाबाद उत्तरी विधानसभा। ये यूपी की सबसे ज्यादा पढ़ी-लिखी सीट मानी जाती है। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी और मोती लाल नेहरू नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी यही है। जिले के सभी बड़े अधिकारी-व्यापारी यहीं रहते हैं, लेकिन वोट देने के मामले में फिसड्डी हैं।
इलाहाबाद उत्तरी सीट पर 2007 में महज 24% वोटिंग हुई थी। सरकार की चिंता बढ़ गई। प्रशासन को प्रचार में लगा दिया। 2012 में स्थिति थोड़ी सी सुधर गई। कुल 40.9% वोटिंग हुई। 2017 में स्थिति जस की तस रही और सवा चार लाख वोटरों में सिर्फ डेढ़ लाख वोटर ही वोट देने के लिए बूथ पर पहुंचे। इस सीट के नाम कम वोटिंग का अनचाहा रिकॉर्ड है। 2002 में इलाहाबाद उत्तरी सीट पर 25.5% वोटिंग हुई थी। 1996 में यहां 32.8% वोटर्स घर से निकले।
लखनऊ कैंट सीट: विधानसभा के सबसे करीब है
उत्तर प्रदेश विधानसभा भवन के एकदम नजदीक की सीट। यहां सिर्फ चुनावी वक्त में ही नहीं बल्कि बाकी वक्त भी माहौल गरम बना रहता है। लोग ट्विटर-फेसबुक पर राजनीति तो बहुत बतियाते हैं, पर वोट डालने के लिए घर से नहीं निकलते।
कादीपुर विधानसभा सीट: 100 में से सिर्फ 6 वोट पड़ने वाली सीट
सुल्तानपुर जिले की कादीपुर सीट पर महज 6% वोटिंग हुई। चौकिए नहीं, छह ही लिखा है। 1991 में इस सीट पर लोग वोट डालने निकले ही नहीं। कुल 14 लाख वोटरों में केवल 89 हजार लोगों ने वोट दिया था। तब यहां भाजपा के रामचंदर जीत गए थे।
दलित बाहुल्य इस सीट पर वोटिंग परसेंटेज कभी भी चौंकाने वाला नहीं रहा। 6% से उठकर ये आंकड़ा 20% से 30% के बीच में अटक गया। 2017 में स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ और वोटिंग परसेंटेज 41.49% पहुंच गया, लेकिन ये आंकड़ा भी प्रदेश के आंकड़े से बहुत कम है।
जगदीशपुर विधानसभा सीट: बूथ को दूर से नमस्ते करने वाली सीट
अमेठी जिले की जगदीशपुर सीट पर 1977 में महज 18.4% लोगों ने वोट किया। इमरजेंसी के बाद हुए इस चुनाव में लोग बूथ को दूर से ही नमस्ते करके आगे बढ़ गए। महज 21 हजार लोग ही बूथ के भीतर गए और बैलट पेपर पर मुहर लगाकर बक्से में डाल दिया। जनता पार्टी के रामफेर कोरी विधायक बन गए। 1980 में भी हालात नहीं बदले। तब 23 हजार लोगों ने वोट डाला था।
कांग्रेस की मानी जाने वाली इस एससी रिजर्व सीट पर कांग्रेस का ही कब्जा रहा है। पहले से अनुमानित नतीजे के कारण ही यहां मतदान 25-35% के बीच रहा। 2012 में सपा के राधेश्याम और 2017 में यहां से भाजपा के सुरेश पासी चुनाव जीते। 2017 में यहां 53.35% वोटिंग पहुंच गई।
इकौना विधानसभा सीट: किसी तरह अब सुधर रही है हालात
श्रावस्ती जिले की मुख्य सीट। 2008 में परिसीमन के बाद सीट का नाम श्रावस्ती विधानसभा कर दिया गया। 1985 में यहां अजब हो गया। कुल 1.56 लाख वोटरों में सिर्फ 30 हजार लोग वोट देने पहुंचे। रामसागर राव चुनाव जीत गए। अब यहां वोटिंग का परसेंटेज बढ़ गया है।
2008 में इकौना से श्रावस्ती विधानसभा होते ही मानो यहां परिवर्तन हो गया। 2012 में वोटिंग प्रतिशत 50% के ऊपर पहुंच गया। 2017 में 63.49% हो गया। इसकी बड़ी वजह सीट का रिजर्व से जनरल होना है। जनरल हुई तो लोगों ने जमकर वोट किया, यही कारण रहा कि 2017 में भाजपा के रामफेरन को 79,437 और सपा के मो. रिजवान को 78,992 वोट मिले। जीत का अंतर रहा सिर्फ 445 वोट।
शहरी वोटर ज्यादा आनाकानी करता है
हमने इस सवाल को लेकर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के मीडिया डिपार्टमेंट के प्रमुख डॉ. धनंजय चोपड़ा से बात की। उन्होंने कहा- कम वोटिंग की शिकायत शहरी क्षेत्रों में अधिक है। यहां के वोटर मानते हैं कि क्या हमारे वोट से ही सब कुछ होगा। उन्होंने आगे कहा- शहरी वोटर को मोटिवेट करने की जरूरत होती है। प्रत्याशी का उनसे सीधा जुड़ाव हो, उनकी जाति का हो या फिर परिवर्तन की बड़ी लहर हो, तभी वोटर घर से बूथ तक जाएगा।
डॉ. चोपड़ा ने कहा- ये स्थिति आने वाले चुनाव में भी नहीं बदलने वाली, क्योंकि कोरोना को लेकर सबसे अधिक सेंसिटिव शहरी लोग ही हैं। कोरोना के खतरों के बीच वह लाइन में खड़ा होने से बचेगा। ऐसे में जरूरी है कि सरकार सुरक्षा को लेकर बड़े फैसले करे।
एकतरफा चुनाव रिजल्ट
कम वोटिंग वाली सीटों पर रिजल्ट पहले से तय नजर आता है। जैसे लखनऊ कैंट की सीट। यहां लोग मान गए हैं कि बीजेपी जीतेगी। इसलिए विरोधी वोटर वोट देने में कोई दिलचस्पी ही नहीं दिखाते। संघर्ष एकतरफा हो तो मजा नहीं आता। यही कारण है कि आधे लोग वोटिंग के दिन को छुट्टी का दिन मान लेते हैं।
परसेंटेज बढ़ाने के लिए चुनाव आयोग क्या कर रहा?
इलेक्शन कमीशन वोटिंग परसेंटेज बढ़ाने के लिए लोगों को जागरूक कर रहा है। पहले भी यही करता था। प्रशासन इलाकों में फ्लैग मार्च कर रहा है। संदेश देने की कोशिश हो रही है कि किसी से डरने की जरूरत नहीं। पहले भी यही होता था, लेकिन सुधार की रफ्तार बहुत धीमी रही। अब सोशल मीडिया पर तमाम ओहदेदार लोग वोटिंग के लिए अपील कर रहे हैं। ये भी प्रभावी साबित हो रहा है। फिलहाल, कोरोना संकट के बीच परसेंट बढ़ाना गंभीर चुनौती है।