राजनीति के मैदान में 'कांग्रेस' के उखड़े पैर
-Amit K Chauhan
कोरोना महामारी के बीच चार राज्यों और एक केन्द्र शासित प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव की मतगणना के लिए कुल 2364 मतगणना केन्द्र बनाए गए थे. जिसके आधार पर बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (TMC) को 213, बीजेपी को 77, असम में पुनः NDA (भाजपा) को 75 तो UPA को सिर्फ 50 सीट पर सिमटना पड़ा.
केरल में वाम मोर्चा LDF (Left) को 99, UDF को 41, तमिलनाडु में विपक्षी द्रमुक (DMK) 156 सीट तो अन्नाद्रमुक (AIADMK) को सिर्फ 78 सीट ही मिल पायी. तो पुड्डुचेरी में AINRC वाली NDA गठबंधन जीत के साथ 16 तो यूपीए को महज 8 सीट ही मिले हैं.
परिणामों का क्या परिणाम होगा?+
इन तमाम रुझानों व परिणामों के बीच स्थिति बेहद साफ है. केंद्र में बैठी भारतीय जनता पार्टी (BJP) को केरल, बंगाल, तमिलनाडु में तगड़ा झटका लगा है, लेकिन उसने कांग्रेस के इतर अपनी स्थिति साफ तौर पर इन क्षेत्रों में मजबूत किया है. वैसे पुड्डूचेरी व असम के गढ़ में किला फतह करने में फिर से कामयाब रही.
इस बीच न्यूज चैनलों से लेकर सोशल मीडिया जगत में तमाम तरह के सवाल किए जा रहे हैं. आखिरकार पक्ष-विपक्ष के बीच कांग्रेस कहां नजर आता है?
खुद कांग्रेसी नेत्री डॉ. रागिनी नायक ट्वीटर पर कहती हैं कि “यदि हम (कांग्रेसी) मोदी की हार में ही अपनी खुशी ढूंढते रहेंगे, तो अपनी हार पर आत्म-मंथन कैसे करेंगे”.
दूसरी ओर छत्तीसगढ़ की युवा महिला विधायक शकुंतला साहू ने बड़ी बेबाकी से स्थिति को स्वीकारते हुए ट्वीट किया
उन्होंने लिखा है, “दूसरों की जीत पर हम लोग कब तक जश्न मनाएंगे..?? हमें और हमारी (कांग्रेस पार्टी) को गहरी आत्म मंथन की जरूरत है”
इस वक्त जब कांग्रेसी कार्यकर्ता गैर कांग्रेसी, गैर बीजेपी प्रत्याशी की जीत व बीजेपी प्रत्याशी की हार पर खुशी मना रहे हैं. उन पर ऐसा आरोप लगना लाजमी है. अगर बंगाल चुनाव को देखें तो भले ही बीजेपी को सत्ता न मिल पाई हो, परंतु उनके कांग्रेस (INC) मुक्त भारत या कांग्रेस मुक्त विपक्ष के नारे को बंगाल में बुलंद किया है. उनकी अपनी रणनीति बहुत हद तक सफल होते दिख रहा है. कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व सिर्फ फैल ही नहीं हुआ बल्कि पूरी तरह से मैदान से नदारद रहा है. जमीनी स्तर पर भी बीजेपी की तुलना में असंगठित नजर आ रहा है.
जहां बंगाल में एक ओर टीएमसी को 48% वोट शेयर तो बीजेपी 38% वोट मिला है. यहां सीटों में बीजेपी को इजाफा हुआ है. भले ही ममता बनर्जी अपने पुराने सिपहसालार शुवेंदु अधिकारी से बेहद नजदीकी कड़े मुकाबले में नंदीग्राम सीट हार गई हों, पर बंगाल में दीदी की हैट्रिक लग चुकी है. केरल में भी लेफ्ट की एक बार फिर से वापसी हो रही है. पांचों राज्यों को देखें तो कांग्रेस स्वतंत्र रुप से अपने पैर जमाते कहीं नजर नहीं आता. उसकी सीट व वोट शेयर पूरी तरह से तबाह हो रहा है.
’विपक्षी पार्टियों का गठबंधन, कांग्रेस के लिए ऑक्सीजन
तमिलनाडू में डीएमके का डंका बजा है, इसी तरह से सहयोगी पार्टियों की जीत कांग्रेस के लिए मलहम का काम कर रही है. इतिहास के पन्ने पलटते हुए लेफ्ट ने केरल में एक बार फिर से अपना परचम लहराया है. बीजेपी बंगाल में बहुत बुरी तरह से हार गई है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि बीजेपी के शीर्षस्थ करिश्माई नेताओं ने अपना चुनावी मायाजाल रचने की भरसक कोशिश की लेकिन दीदी के “जय बांग्ला और प्रशांत किशोर के मास्टर स्ट्रोक” के आगे सब फैल हो गया. मोदी और शाह का जादू, जिसमें 200 के पार वाला आंकड़ा एक बार फिर से जुमला बनकर रह गया.
क्या हारकर के जीतने वाले को बीजेपी कहते हैं?
इस चुनाव पर पूरे देश की निगाहें टिकी हुई थी. कोरोना महामारी के बीच राहुल गांधी का ये एलान करना की मैं चुनावी रैली नहीं करूंगा. लोगों को हास्यास्पद लगा तो कुछ लोगों ने सराहा भी. कांग्रेस की नजर में बीजेपी की चाहे जो भी बंटा-धार हो, कांग्रेसी उनकी पराजय पर खुश हो रहे हों, ममता दीदी, पिनराई विजयन, स्टेलिन इन सबके जीत का जश्न मना रहे हों, पर उन्हें बड़ी गहराई से विचार करने व आत्म मंथन करने की जरुरत है. उन्हें ममता बनर्जी की जीत पर ज्यादा खुश नहीं होना चाहिए. सत्ता की चाह किसी के साथ भी समझौता करा देती है.
दीदी कांग्रेस से अलग होकर वाम दल को सत्ता से बाहर किया था. वाजपेयी सरकार में माहौल को भांपते हुए सरकार बनाने में सहयोग किया था. तो ये कहना बेईमानी नहीं होगा कि भविष्य में उनके भतीजे जब बागडोर सम्हालेंगे तो सत्ता की चाह में वो एनडीए से मुंह मोड़ेंगे. राजनीति में सब संभव है. इसलिए अपनी स्थिति को स्वीकार करते हुए कांग्रेस को अपना आंकलन करना चाहिए. आखिर, उनकी अपनी जमीन कहां है? सच्चाई के धरातल पर उनके पांव अदृश्य नजर आते हैं.
जितने राज्यों में चुनाव हुए हैं, वहां पर कांग्रेस का ऐसा कौन सा चेहरा है, जिसकी बदौलत वो वोट मांग सकते हैं. बंगाल में लेफ्ट को भी करारा झटका लगा है. कई दशकों की शासक वामपंथी दल को ममता
ने बाहर किया था वो भी कांग्रेस से अलग टीएमसी सुप्रिमो बनकर. कांग्रेस उनकी जीत पर आज जश्न मना रही है.
क्या बीजेपी को सरकार न बना पाने का मलाल है?
आज बीजेपी भले ही तीन बड़े राज्यों में सरकार न बना पायी हो, मगर उसका दबदबा, पहुंच, संगठन, कार्य- विस्तार, कार्यकर्ताओं की संख्या बल में इजाफा जरूर हुआ है. जिसकी उसे दरकार थी. बीजेपी बहुत हद तक अपनी विचारधारा (श्यामा प्रसाद मुखर्जी के हिन्दुत्व विचारधारा) को बंगाल तक पहुंचा पाने में यकीनन कामयाब हुई है. राज्यसभा में इससे उनको बड़ा फायदा होगा. उनके सांसद ज्यादा संख्या में चुनकर आएंगे.
वर्तमान में कई बिलों को पास कराने में बीजेपी को राज्यसभा में संख्या बल की कमी के कारण परेशानी हो सकती है. धीरे-धीरे उसका बेस बढ़ेगा और वो अपने हिडेन एजेंडा को लागू करने में कामयाब होगा. जिसके लिए आरएसएस कई दशकों से सतत प्रयास कर रही है और आज उसने अपने प्रचारकों व कार्यकर्ताओं को राजनेताओं के तौर पर भारत के उच्च पदों पर आसीन किया हुआ है. कांग्रेस जब तक उनके कोड को डिकोड करने की सोचेगा भी उससे पहले ही वो टाइम आउट वाली पोजिशन पर होगा.
टीवीपुरम की एंकरानियां काफी रूदाली मन से बीजेपी की हार पर कह रहीं थीं कि मुसलमानों ने एकतरफा वोट टीएमसी को दिया है. बीजेपी समर्थक बुद्धिजीवी, प्रचार तंत्र, आईटी सेल, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) ये साबित करने की कोशिश करेंगे कि देखिए जी हिंदूओं की पार्टी को मुसलमानों ने हरा दिया. आप हिंदूओं को एकजुट होना होगा. पर ये ध्रुवीकरण बंगाल, केरल व तमिलनाडू में नहीं चला. गौर करने वाली बात है.
मान लीजिए 28% मुसलमानों का वोट प्रतिशत बंगाल में है, तो बाकी हिन्दूओं को तो बीजेपी को वोट करना था. तो क्या वोट शिफ्ट हो रहा था. बंगाल में कुछ ऐसी सीटें हैं, जहां पर 90% हिन्दू वोटर थे, फिर भी वहां पर बीजेपी को करारी हार मिली है.पर कांग्रेस को क्या मिला? सोशल मीडिया में ऐसी बातें भी हो रही हैं कि जितने भी एजुकेटेड राज्य हैं, वहां पर हिंदू- मुस्लिम, मंदिर- मस्जिद वाली ध्रुवीकरण की राजनीति नहीं चली.
कांग्रेस का तारनहार कौन?
तमाम विवेचनाओं के बीच कांग्रेस का वोट या तो बीजेपी की ओर शिफ्ट हो रहा है या बीजेपी के अगेन्स्ट खड़ी होने वाली क्षेत्रीय पार्टी के साथ. भले ही बीजेपी ये कहे कि कांग्रेस का वोट उनको नहीं मिला, अन्य विपक्षियों को मिला हो. तमाम जातिगत, धार्मिक, क्षेत्रीय राजनीति, ध्रुवीकरण, सोशल इंजीनियरिंग के बीच कांग्रेस अपनी साख बचा पाने व बीजेपी के रणनीति को भेद पाने में अभी तक तो नाकाम रही है, इसीलिए उसे क्षेत्रीय पार्टियों से हाथ मिलाना पड़ रहा है. भविष्य में स्वत्रंत रुप से उसके अस्तित्व पर कोई और सवालिया निशान न लगे इसके लिए उसे जमीनी स्तर पर बड़े बदलाव करना होगा.
क्योंकि देश ने देख लिया है कि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का जादू भी असम में नहीं चल सका. किसी एक्सपर्ट ने कहा होगा कि असम में छत्तीसगढ़िया समुदाय के लोग रहते हैं. एक कांग्रेसी विजेता को असम में पेश करेंगे तो पॉजीटिव रियेक्शन मिलेगा. पर सब बेकार साबित हुआ. जैसे- छत्तीसगढ़ के लोकसभा चुनाव में हुआ था.
यानी कुल मिलाकर यही कह सकते हैं कि कांग्रेस का हाल ऐसा हो गया है कि सोने को भी छू ले तो माटी हो जाए. इसी का एक उदाहरण सीएम भूपेश बघेल हैं, जिनका राष्ट्रीय चेहरा बनने का सफर भी जाता रहा और चाणक्य बनने का तमगा भी हाथ से निकल गया. वर्तमान में कांग्रेस को अपने अतीत के स्वर्ण स्वप्न से जागना होगा. ये नींद उसे चुनाव परिणामों में अदृश्य नंबरों पर खड़ा कर देगी. इस तिलिस्म से निकल पाना उसके लिए इंद्रजाल साबित हो रहा है.
-Amit K Chauhan