Women Healthcare: दयनीय दशा में है भारत में महिलाओं का स्वास्थ्य, सुधार के लिए तत्काल कदम की आवश्यकता.... Featured

बोलता गांव डेस्क।।

 

Women Healthcare: कहते हैं स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का वास होता है। बात जब नारी के स्वास्थ्य की हो तो स्थिति और भी विशेष हो जाती है। परन्तु भारत जैसे देश में जहां गरीबी, सामाजिक, व्यवहारिक सोच में लिंग-भेद और सामान्य रूप में स्वास्थ्य की अनदेखी होती हो, वहां नारी स्वास्थ्य के प्रति कितनी गंभीरता है?

 

 

 

हाल में ही एक स्वास्थ्य सेवा संबंधी मंच जिओक्यूआईआई के अनुसार, भारत में 51 प्रतिशत महिलाएं स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझ रही हैं। महिला स्वास्थ्य को लेकर किए गए सर्वेक्षण रिपोर्ट "लिव वेल एंड स्टे हेल्दी: लाइफस्टाइल इज ए पावरफुल मेडिसिन," 2022-23 के मुताबिक, भारत में 51 प्रतिशत महिलाएं मासिक धर्म की अनियमितता, पॉलीसिस्टिक ओवरी सिंड्रोम (पीसीओएस), हाइपोथायराइडिज्म, यूटीआई और फाइब्रॉएड, मधुमेह और बांझपन जैसी बीमारियों से जूझ रही हैं।

 

 

 

Women Healthcare: health condition of Women in India is in a pathetic 

पीरियड्स सम्बंधित बीमारियां, ब्रेस्ट, सर्वाइकल, यूट्रस कैंसर कुछ ऐसी बीमारियां हैं जो सिर्फ महिलाओं के साथ ही जुडी हैं। इसके अलावा यूटीआई जैसी बीमारी में पुरुषों की तुलना में स्त्री में इस बीमारी के होने की संभावना 87% ज्यादा होती है। एनीमिया से भारत की 56% महिलाएं पीड़ित हैं जो पुनः पुरुषों की अपेक्षा बहुत ज्यादा है। विटामिन डी, विटामिन बी-12 और कैल्शियम की कमी से भारत की 80% महिलाएं जूझ रही हैं। ये कमी अर्थराइटिस, स्लिप डिस्क और सर्वाइकल पेन को सीधे तौर पर आमंत्रित करती है।

 

 

 

 

 

 

इंडियन थॉयराइड सोसाइटी के अनुसार भारत में 4.2 करोड़ महिलाएं थॉयराइड से पीड़ित हैं। "पोस्टपार्टम डिप्रेशन" अर्थात माँ बनने के बाद अवसाद में आना भी एक गंभीर समस्या है। डॉक्टरों के मुताबिक़ ये समस्या क़रीब 50 से 60 फ़ीसदी महिलाओं को होती है। इसमें महिलाओं के व्यवहार में उदासी, तनाव, चिड़चिड़ापन और गुस्से जैसे बदलाव आते हैं। वो अपनी जान लेने तक की सोचती हैं। ऐसे में पारिवारिक सहयोग और उचित इलाज बेहद ही जरुरी होते हैं। ये डिप्रेशन सिर्फ डिप्रेशन तक सीमित नहीं रहते हैं। हॉर्मोन सम्बन्धी अनेक बीमारियों को भी आमंत्रित करते हैं जिसमें PCOD, थॉयरॉइड और शुगर प्रमुख हैं।

 

 

 

भारत की सामाजिक पारिवारिक ताने-बाने की स्थिति ऐसी है जिसमें महिला परिवार की धुरी होती है। परिवार के सदस्य भोजन की व्यवस्था, घर की सफाई और देखभाल, अपने कपड़े-लत्ते की धुलाई-इस्त्री यहां तक कि दैनिन्दिनी में आने वाले हर छोटी-बड़ी जरुरत के लिए स्त्री की ओर ही देखते हैं। माँ, बहन, पत्नी, पुत्री के रूप में इस दायित्व का निर्वाह करती स्त्री प्रायः अपने स्वास्थ्य की अनदेखी कर देती है।

 

 

 

यह तो स्त्री का मातृत्व स्वभाव है जो परिवार की देख-रेख को, उनके भोजन की व्यवस्था को सबसे ज्यादा महत्व देती है। सबको खिलाने के बाद बचा खुचा एवं 'क्वालिटी तथा क्वांटिटी' दोनों मामले में अपर्याप्त भोजन स्वयं करना या बासी भोजन कर लेना अधिकाँश बार उसकी मजबूरी और स्वयं के प्रति अनदेखी ही होती है।

 

ऐसे में पोषण की स्थिति में वह पुरुष के मुकाबले पिछ्ड़ जाती है। आऊटलुक में छपी एक रिपोर्ट के हिसाब से महिलाओं के कुपोषित होने का यह सबसे बड़ा कारण है। पोषण में पिछड़ी तो स्तनपान से लेकर, गर्भावस्था में खराब स्थिति, पीरियड्स में खून की कमी और अनेक बीमारियां सहज ही होंगी। परन्तु प्रश्न यह भी उठता है कि उनके स्वाभाव या मजबूरी से उत्पन्न होती खराब स्वास्थ्य के प्रति परिवार और सरकार क्या कदम उठाती है?

 

 

विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बने भारत की सरकार द्वारा स्वास्थ्य पर होने वाले खर्चे पर भी एक नज़र डालते हैं। 2023-24 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग का अनुमानित व्यय 86,175 करोड़ रुपए है जो 2023-24 के लिए केंद्र सरकार के कुल व्यय का लगभग 2% है। स्वास्थ्य जिसके केंद्र में व्यक्ति मात्र का नहीं अपितु पूरे देश का विकास निर्भर करता है उस पर मात्र 2% का व्यय अपने आप में भारत में स्वास्थ्य के महत्ता की कहानी कह रहा है। अब ऐसे में 'महिला स्वास्थ्य' पर गंभीरता की स्थिति पर विचार किया जा सकता है।

 

 

एक तरफ आंकड़ा यह कहता है कि वर्ष 2021 में भारत का स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र भारत के सबसे बड़े नियोक्ताओं में से एक था जिसने कुल 4.7 मिलियन लोगों को रोज़गार प्रदान कर रखा है। वही आंकड़ा यह भी बताता है कि नेशनल हेल्थ प्रोफाइल के अनुसार, भारत में प्रति 1,000 जनसंख्या पर केवल 0.9 बेड उपलब्ध हैं और इनमें से केवल 30% ही ग्रामीण क्षेत्रों में उपलब्ध हैं। सबसे गंभीर चिंताओं में से एक है चिकित्सक-रोगी अनुपात में अंतर। वर्तमान में सरकारी अस्पतालों में 11000 से अधिक रोगियों पर एक चिकित्सक उपलब्ध है जो 1:1000 की WHO की अनुशंसा से बहुत कम है।

 

यह भी एक सच है कि 'आयुष्मान भारत' जैसी सेवाओं की लाभार्थी लगभग 49% महिलाएं हैं। परन्तु कटु सत्य यह भी है कि ऐलोपैथी में केवल 17% महिला चिकित्सक हैं और महिलाएं प्रायः पुरुष चिकित्सकों से अपना इलाज नहीं करवाना चाहती हैं। महिलाओं, विशेष रूप से गर्भवती और स्तनपान करवाती महिलाओं के लिए सरकार की अनेक योजनाएं हैं। जननी सुरक्षा योजना (2005), PM- सुरक्षित मातृत्व अभियान-2016, पोषण अभियान 2018, प्रधानमंत्री मातृ वंदन योजना आदि। परन्तु मातृ मृत्यु दर में साल दर साल होने वाले सकारात्मक बदलाव के बावजूद भी आज यहाँ आंकड़ा 97 प्रति लाख महिलाएं हैं जो वैश्विक पैमाने पर अब भी दयनीय स्थिति में है।

 

सामाजिक-पारिवारिक पहलू पर नज़र डालें तो गरीबी अपने आप में एक अभिशाप है। ऐसे घरों में बीमार होने पर महिलाओं की पहुँच स्वास्थ्य सेवाओं तक ना के बराबर होती है जब तक स्थिति जीवन - मरण तक ना पहुंच जाए। जिनकी थाली ही पूरी नहीं होती वो भला पोषण की थाली कैसे भरेंगे? जिनके पास शरीर ढकने को ही पूरे कपड़े नहीं होते वो भला पीरियड्स में सैनिटरी पैड या साफ़ सूती कपड़ा कैसे इस्तेमाल करेंगी? शहरों में आर्थिक संकट भले न हो लेकिन उनकी भागती-दौड़ती जिंदगी भी महिला के स्वास्थ्य के प्रति उदासीनता का एक कारण है।

 

घटती मातृ मृत्यु दर, जागरूकता, बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं और उन सेवाओं तक आसान पहुँच पढ़ने - सुनने में अच्छे लगते हैं लेकिन महिला स्वास्थ्य को लेकर सुधार की दर क्या है, इस पर गंभीरता से विचार होना बाकी है।

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Last modified on Friday, 13 October 2023 10:51

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