बोलता गांव डेस्क।। किताबें किसी के भी व्यक्तित्व को बेहतर बनाने में बड़ी भूमिका निभाती हैं। जितना आप पढ़ते हैं, उतनी ही आपकी सोच विकसित होती है। उतना ही अच्छा आप बोलते हैं। इसी सोच के साथ उत्तर प्रदेश के जतिन ने अपने गांव में ‘बांसा कम्युनिटी लाइब्रेरी एंड रिसोर्स सेंटर’ की शुरुआत की। इस लाइब्रेरी के अंदर जाकर ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगेगा कि आप किसी गांव में हैं। यहां कॉम्पिटिटिव एग्जाम से लेकर, कॉमिक्स, इंग्लिश-हिंदी लिटरेचर और लॉ की 3000 से ज्यादा किताबें हैं। इसके अलावा छोटे बच्चों के लिए यहां 100 से ज्यादा एजुकेशनल टॉयज भी हैं। यहां के वॉलिंटियर्स ऑनलाइन और ऑफलाइन बच्चों को पढ़ने में मदद भी करते हैं।
लाइब्रेरी बनाने के बाद गांव के बच्चे गांव के नुक्कड़ पर खड़े नहीं रहते, न ही बेवजह टाइम वेस्ट करते हैं। गांव का माहौल बहुत सकारात्मक रहता है। स्टूडेंट्स अब किताबों और बड़े-बड़े मुद्दों पर बातें करते हैं। लाइब्रेरी में 36 गांव के स्टूडेंट्स एग्जाम की तैयारी करने आते हैं। जहां उन्हें पढ़ाई के साथ कंप्यूटर और इंग्लिश की भी क्लास दी जाती है।
आज की पॉजिटिव खबर में जानते हैं जतिन और उनकी एक इस खास पहल के बारे में, जिसकी वजह से गांव के बच्चों की जिंदगी संवर रही है।
खुद लाइब्रेरी में काम किया तो पता चली किताबों की अहमियत
जतिन सिंह की उम्र 24 साल है। वे उत्तर प्रदेश में लखनऊ से 70 किलोमीटर दूर बसे गांव के रहने वाले हैं। उन्होंने दिल्ली की गलगोटिया यूनिवर्सिटी से लॉ की पढ़ाई की है और फिलहाल UPSC की तैयारी कर रहे हैं। कॉलेज में पढ़ने के दौरान जतिन ने दिल्ली की कम्युनिटी लाइब्रेरी में काम किया। फिर उन्हें लाइब्रेरी बनाने का आइडिया आया।
जतिन बताते हैं, “मेरी परवरिश गांव में ही हुई। मैं एक संपन्न घर से हूं। इस वजह से पढ़ने-लिखने की अच्छी सुविधा मिली। इसके बावजूद मानता हूं कि शहर का इंफ्रास्ट्रक्चर जिस तरह से किसी बच्चे की पर्सनैलिटी को बेहतर बनाता है, वो गांव में नहीं मिल पाता है। मैं लखनऊ के सिटी मॉन्टेसरी स्कूल गया, जहां गांव और शहर के बीच के फर्क को साफ महसूस किया। 2016 में 12th के बाद लॉ की पढ़ाई करने के लिए दिल्ली चला गया।
दिल्ली में कॉलेज से साथ द कम्युनिटी लाइब्रेरी में काम भी किया। वहां सभी सुविधाएं मुफ्त थीं। यहां दक्ष नाम का एक छोटा-सा बच्चा रोज पढ़ने आता था। उसके माता-पिता काफी गरीब थे और वे स्लम में रहते थे। शुरू-शुरू में तो दक्ष काफी डरा- सहमा सा रहता था, लेकिन धीरे-धीरे वह नई चीजें सीखने लगा। लोगों से अंग्रेजी में डिस्कस करने लगा।”
दक्ष में आए इस बदलाव ने जतिन को काफी प्रभावित किया। उन्होंने तय किया कि वे अपने गांव में भी इसी तर्ज पर लाइब्रेरी बनाएंगे। तभी कोरोना महामारी ने दस्तक दी और जतिन को वह मौका मिल गया। दिसंबर 2020 में जतिन ने अपने गांव में एक कम्युनिटी लाइब्रेरी की शुरुआत की। तब वे अपने कॉलेज के आखिरी साल में थे।
किताबें जीवन का आधार
जतिन मानते हैं किताबें जीवन का आधार हैं। ये सिर्फ नौकरी या एग्जाम पास करने में ही नहीं, बल्कि इंसान की सोच विकसित करती हैं।
जतिन कहते हैं, “मेरे जैसे उत्तर प्रदेश और बिहार के कई छात्र UPSC जैसी सिविल सर्विसेज या दूसरे गवर्नमेंट एग्जाम की तैयारी करने के लिए अपने गांव से दूर किसी शहर जाते हैं। वहां रहने के लिए उनके घर वालों का बहुत पैसा खर्च होता है। जो कई बार उनकी फैमिली अफोर्ड नहीं कर पाती है। इस परेशानी को समझते हुए मैंने अपने गांव में सिविल सर्विसेज सहित दूसरे कॉम्पिटिटिव एग्जाम की तैयारी करने वाले छात्रों के लिए लाइब्रेरी की शुरुआत की।
मैं मानता हूं कि सिर्फ एकेडमिक बुक्स पढ़कर किसी का व्यक्तित्व बेहतर नहीं हो सकता। कॉलेज के दौरान मैंने देखा जो छात्र गांव से आए थे, वह पढ़ने में बहुत अच्छे थे। उन्हें अपने सब्जेक्ट की नॉलेज भी थी। कहीं न कहीं वह अपने व्यक्तित्व के कारण शहर के बच्चों की तुलना में कम कॉन्फिडेंट थे। इसलिए मैंने सोचा गांव के बच्चों को अलग-अलग किताबों को पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाए। जिसका नतीजा आज गांव में देखने को मिल भी रहा है।”
जतिन ने सोचा कि अगर गांव के बच्चों को भी अच्छा एक्सपोजर मिलेगा तो अपने करियर में और बेहतर कर पाएंगे। इस सोच के साथ उन्होंने लाइब्रेरी बनाने का फैसला कर लिया।
इस तरह बनी गांव में कम्युनिटी लाइब्रेरी
कहते हैं न किसी काम के बारे में सोचना और उसे धरातल पर साकार करने में फर्क होता है। जतिन की सोच तो अच्छी थी, लेकिन लाइब्रेरी बनाने में कई मुश्किलें आ रही थीं। उनका इरादा पक्का था तो घरवालों और दोस्तों से काफी मदद मिली।
जतिन कहते हैं, “2020 सितंबर में लाइब्रेरी बनाने की शुरुआत हुई। इसके लिए गांव में मंदिर की जमीन को 100 साल के लिए लीज पर लिया। उस पर दिसंबर 2020 में दो कमरों की एक लाइब्रेरी तैयार हो गई। किताबों के लिए द कम्युनिटी लाइब्रेरी, राजकोट लाइब्रेरी और प्रथम बुक्स जैसी ऑर्गनाइजेशन की मदद मिली।”
पहले जतिन के गांव के ज्यादातर बच्चों को गवर्नमेंट एग्जाम की तैयारी के लिए कानपुर या लखनऊ जैसे शहर जाना पड़ता था, जिससे उनके खेती-किसानी करने वाले परिवारों पर आर्थिक बोझ बढ़ जाता है। अब उन्हें गांव में ही किताबें और माहौल मिल जाता है जिससे बाहर न जाकर गांव में ही बच्चे पढ़ाई कर पा रहे हैं।
36 गांव के बच्चे आते हैं यहां पढ़ने
बांसा कम्युनिटी लाइब्रेरी एंड रिसोर्स सेंटर में फिलहाल 1700 से अधिक स्टूडेंट्स जुड़े हुए हैं। जिनमें से करीब 300 कॉम्पिटिटिव एग्जाम की तैयारी कर रहे हैं। जतिन ने छात्रों की मदद के लिए दो तरह की टीम बनाई है।
जतिन बताते हैं, “हमारे यहां बच्चों को आकर पढ़ने का सिर्फ एक ही नियम है। स्टूडेंट आएं और पढ़ाई करें। ये लाइब्रेरी सबके लिए फ्री है। फिलहाल हमारे यहां 1700 स्टूडेंट्स का लाइब्रेरी कार्ड बना है और हर दिन करीब 70 से 100 बच्चे पढ़ने आते हैं। किताबों के अलावा हमारे कुछ साथी उन्हें एग्जाम की कैसे तैयारी करनी है, ये भी सिखाते हैं।
मेरी कोशिश रहती है कि बिना किसी एग्जाम के भी बच्चे यहां आकर पढ़ें। जब ये स्टूडेंट्स दूसरी किताबें पढ़ेंगे तभी इनकी पर्सनैलिटी डेवलप होगी। यहां आकर पढ़ने के अलावा हम बच्चों को एक हफ्ते के लिए किताबें घर ले जाने के लिए भी देते हैं।”